शहर दर शहर होते वीरान रहे
एक हम थे जो खुद से अनजान रहे
वो मेरे जिस्म की तलाश में था
हम उनके ताउम्र निगहबान रहे
तुम चलो साथ-साथ साया बनकर
चाहे फिर क्यूँ न वो अहसान रहे
जिनकी धड़कन से है ज़िन्दगी मेरी
वो साथ हों तो सफ़र आसान रहे
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
20th Aug. 02, '168'
एक हम थे जो खुद से अनजान रहे
वो मेरे जिस्म की तलाश में था
हम उनके ताउम्र निगहबान रहे
तुम चलो साथ-साथ साया बनकर
चाहे फिर क्यूँ न वो अहसान रहे
जिनकी धड़कन से है ज़िन्दगी मेरी
वो साथ हों तो सफ़र आसान रहे
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
20th Aug. 02, '168'
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