सुरुरे मय तर-ब-तर हो गया
शायद रुख से नकाब उतर गया
साक़ी भी कुछ यूँ ठहर गया
जैसे कोई आफ़ताब गुजर गया
क्या मयखाना, क्या शराब, क्या रिन्द
सुना है उसकी आँखों में ग़मे उल्फ़त उतर गया
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
6th June. 12, '282'
शायद रुख से नकाब उतर गया
साक़ी भी कुछ यूँ ठहर गया
जैसे कोई आफ़ताब गुजर गया
क्या मयखाना, क्या शराब, क्या रिन्द
सुना है उसकी आँखों में ग़मे उल्फ़त उतर गया
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
6th June. 12, '282'
No comments:
Post a Comment