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Friday, April 18, 2014

रुंधे हुए गले का जवाब

तंगहाली की वो आइसक्रीम
चन्द
रुपयों के वो तरबूज
किसी गली के नुक्कड़ की वो चाट
सुबह
- सुबह
पूड़ी
और जलेबी की तेरी फरमाइशमुझे आज भी याद है
कैसे
भूल जाऊं
अम्मी से पहली मुलाकात
और मेरी इज्ज़त रखने के लिएपहले से खरीदा गया तोहफामेरे हाथों में थमाना
ये कहते हुए किअम्मी को दे देनाकैसे भूल जाऊं

वो
नेकियों वाली
शबे
बरात कि अजीमुश्शान रातकहते हैं
हर
दुआ क़ुबूल होती है उस रात
मुहब्बत से मामूर दिल
और
बारगाहे इलाही मेंउट्ठे हुए हाथ
हिफाजते
मुहब्बत के लिएकैसे भूल जाऊं

कैसे
भूल जाऊंवो पाक माहे रमज़ानसुबह सादिक का वक़्त
खुद के वक़्त की परवाह किये बगैर
सहरी के लिए मुझको जगाना
दिन भर के इंतज़ार के बाद
वो मुबारक वक्ते अफ्तारी
हर रोज मिरे लिए कुछ मीठा भेजना
कैसे भूल जाऊं

मेरा
वक़्त- बे- वक़्त डांटना
क्यूँ
भेजा था तुमने
कल
से मत भेजना
और वहां से-
वही
मखमली आवाज़ में
रुंधे हुए गले का जवाबहो सकता है
ये
आखिरी अफ्तारी हो
खा लो शाहिद
मेरे हाथों की बनी हुयी चीजें
जाने
कब ये पराये हो जाएँ
कैसे भूल जाऊं.......

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी
5th June 2011, '257'

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