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Saturday, April 12, 2014

कैदे ज़िन्दगी से कहाँ इतनी फुर्सत मिलती है

कैदे ज़िन्दगी से कहाँ  इतनी फुर्सत मिलती है
ढेरों नफरतों के बाद जरा सी उल्फत मिलती है 

यादों की बौछारों से भीग जाते हैं दिल के तार 
आंसुओं की शक्ल में जरा सी दौलत मिलती है 

उसके तसव्वुर को मैंने पैकर की तरह माना है 
ज़िन्दगी की सारी रानाई उसके बदौलत मिलती है 

वो भी मिली, दुनिया भी मिली, खुशियाँ भी मिलीं 
बाद मिन्नतों के भी कहाँ ऐसी किस्मत मिलती है 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
29th Aug. 02, '169'

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