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Tuesday, November 11, 2014

आँख तर थी मगर मुस्कुराना पड़ा

आँख तर थी मगर मुस्कुराना पड़ा
उनके हाथों ज़हर हमको खाना पड़ा

लाख मैंने बताया लहू सुर्ख है
फिर भी दिल चीर के दिखाना पड़ा

उँगलियाँ मत ज़माने की मुझ पे उठें
इसलिए उनसे रिश्ता चलाना पड़ा

दिल में था घर में न आने दूंगा कभी
सामने आ गए तो बुलाना पड़ा

सामने जब वो आ गए मेरे
देख के उनको अपना सर झुकाना पड़ा

वो मेरे क़रीब थे बहुत
न जाने क्यूँ दूर से दिल बहलाना पड़ा

धमकियाँ रोज देती थी बिजली मुझे
इसलिए खुद नशेमन जलाना पड़ा

- 'अजनबी' और 'कशिश'

04.09.99 , '360'

Saturday, May 31, 2014

ऐ दोस्त !

ऐ दोस्त !

चल छोड़ यार
कहीं और चलते हैं
सियासत से दूर
बरगद की छाँव में
बचपन के गाँव में

दौड़ते- दौड़ते लग जाए
फिर कोई काँटा
और निकालने को आये
मेरा सबसे अजीज़ यार

- शाहिद 'अजनबी'


14.05.14, '359'



आसमाँ पे छाई काली घटा बादल की

आसमाँ पे छाई काली घटा बादल की
घटा लायी कुछ बूँदें सावन की बरसात की

भीग गया दामन मेरा इस बरसात में
बह गए दिल के अरमां इस मनभावन बरसात में

मन भटका कुछ इधर उधर इस बरसात से
याद आये बीते लम्हे इस बरसात से

दिल हो गया बाग़ बाग़ उन गुजरी यादों से
हो गए दूर दिल के दुःख इन प्यारी यादों से

दिल में उठी फिर से कसक आज उनसे मिलने की
पर यकीं है हमें वो न मिलेंगे इस भीगे बरसात में

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी' 
09.05.99, '358'

इस ग़ज़ल को लिखने में महेंद्र का सहयोग रहा ...

एक अजीब रास्ता

एक अजीब रास्ता , अलग अलग सा
विलगित लगी मुझे
सूर्य की तड़पती धूप
सूनी गलियां, एक अजीब माहौल
सिसकते लोग,
किसी से डर, एक अजीब सी महक
अभी कोई आया , आकर गिर पड़ा
कोई न उसका , कोई न मेरा
फिर भी मैं उसका और वो मेरा
बंधनों का अटूट रिश्ता
दिल की लगी आज फिर से तड़पी
याद आई आज वो रूहानी कविता
किसी ने लिखी थी किसी के लिए
आज वो सार्थक हुयी
इसी कड़ी धूप में
कोई किसी का न यहाँ
फिर भी ढूंढता हूँ मैं
अपना यहाँ
ये मेरी कैसी सोच
कैसा कार्य
नहीं आया मेरे
समझ में

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'

 इस कविता को लिखने में कृतज्ञ का सहयोग रहा
09. 05.99 '357'


Sunday, May 11, 2014

हजार बार देखी हैं तेरी आँखें हमने

हजार बार देखी  हैं तेरी आँखें हमने

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
01.02.14, '356'

न किसी की आँख का नूर हूँ

न किसी की  आँख का नूर हूँ

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
01.02.14, '355'

घड़ी तो चलती रहती है

घड़ी तो चलती रहती है
पर वक़्त कटता नहीं

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
01.02.14, '354'

ये याद भी

ये याद भी
अजीब शै है
आती है तो टूट के आती है
नहीं आती
तो मीलों तन्हाई होती है

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
30.01.13, '353'

Thursday, May 08, 2014

काश तुम्हें भूल पाते

काश तुम्हें भूल पाते
खुद को मशगूल पाते

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
30.01.13 '352'

न कोई शाहीन सही

न कोई शाहीन सही , न तवील कारवां सही
मगर हौसलों का जखीरा तो है सही  !!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
 24.12.07 , '351'

तमन्ना

कभी- कभी ये भी मेरे लिए नज़्म हो जाती है -

हमें बहुत खुशी हो रही है की आज हम हमारे ख़त को पुरा करने जा रहे है।
हमें इतनी खुशी कभी नही हुई जितनी आज हो रही है।
लग रहा है की मेरी जो तमन्ना थी वोह आज पुरी हो गई है।
हमें आज पुरी तरह से ब्लॉग पर काम करना आ गया है।
और यह सब मेरे प्यारे से दोस्त की वजह से हुआ है अगर वोह नही मिलता तो शायद हमें कुछ भी नही आता।
उसी ने हमको जीना सिखाया है ।
उसका एहसान हम ज़िन्दगी भर नही भूल सकते है ।
हम दोनों में कितनी भी लड़ाई हो जाए लेकिन अगर कोई हमसे कहे की तुम अपने दोस्त को भूल जाओ तो मेरा जवाब यही होगा की हम पुरी दुनिया को भूल सकते है मगर उसको कभी नही भूल सकते है ।
और भी उसने बहुत कुछ सिखाया है ।
वोह मेरा अच्छा और प्यारा दोस्त "मोहम्मद शाहिद मंसूरी है "
rozy
11.08.09, '350'

( कानपुर में लिखा गया मेरे साथ रोज़ी ने )

आग़ाज़

हमारे खतों का आगाज़

- शाहिद अजनबी 
15.02.09, '349'

( कानपुर में लिखा गया रोज़ी  के साथ )

ज़िन्दगी हमें वक्त के साथ

ज़िन्दगी हमें वक्त के साथ सब कुछ सिखा देती है।

रोजी 

- शाहिद अजनबी 
28.03.09, '348'

( कानपुर में लिखा गया रोज़ी के साथ ) 

मेरी डायरी

मेरी डायरी
ये मेरी अपनी ज़िन्दगी का फ़साना है
जो कभी बयां ही न हो सका

- शाहिद अजनबी
20.07.09, '347'

( कानपुर में लिखा गया रोज़ी के साथ )

ख़ुशी

आज मुझे आसमान भर खुशी मिली।
जिसमें मैं और सिर्फ़ मेरा शाहिद नज़र आए मैं हमेशा यही चाहूंगी....
काश खुदा ऐसा कर दे।
- रुबीना फातिमा "रोज़ी"
 
10.08.09, '346'
( मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी')
(कानपुर में लिखा गया रोज़ी के साथ)
 

ग़म

आज हम दोनों ग़म में हैं न जाने क्यूँ 

- शाहिद अजनबी
21.07.09, '345'

( कानपुर में लिखा गया रोज़ी के साथ )

रोज़ी बहुत "प्यारी"

रोज़ी बहुत "प्यारी" है मगर बहुत बेदर्द।

- शाहिद अजनबी
21.07.09, '344'

( कानपुर में लिखा गया रोज़ी के साथ )

मेरी खुशी


हाँ, थी
मुझे बेइंतिहा मुहब्बत
अपने नाम से
लगता था की मीठा सा
मगर अब
नफरत घुलने लगी है उसमें।

- शाहिद "अजनबी"
 21.07.09, '343'

(कानपुर में लिखा गया रोज़ी के साथ)


हमारी दुनिया भी क्या दुनिया है

हमारी दुनिया भी क्या दुनिया है 
की हम अपनी आंखों के सामने 
अपनी दुनिया लुटते हुए देख रहे हैं। 
अजीब बात है 
तुम्हारा दिल भी 
कैसे गवारा करता है की 
तुम ख़ुद बखुशी         
अपनी ससुराल के लिए 
शोपिंग करो"

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी  'अजनबी', 
(कानपुर  में लिखा गया  रोज़ी के साथ ) 
20.07.09 , '342'










सारी डिग्रियां एक तरफ



वक़्त न जाने क्या सोचकर क्या लिखवा देता है-

सारी डिग्रियां एक तरफ
मजदूर की थकन एक तरफ

कबीर के दोहे एक तरफ
ग़ालिब का कलाम एक तरफ

अमीरे शहर की रौशनी एक तरफ
तीरगी में चमकता जुगनू एक तरफ

मयखाने की लग्ज़िशें एक तरफ
सुरूरे मुहब्बत एक तरफ

सारे ज़माने का ओढना एक तरफ
और माँ का आँचल एक तरफ

-- शाहिद "अजनबी"

19.06.2012, '341'

यहाँ आदमी की नहीं



यहाँ आदमी की नहीं ओहदे की कीमत होती है
ज़िंदगी की ख़ुशी से नहीं ग़मों से जीनत होती है

देखने मैं हर एक इन्सान अच्छा लगता है
मगर बात ये है कैसी उसकी सीरत होती है।

- शाहिद " अजनबी "
28.12.07, '340' 

क्योंकि वो लड़की है



उसमें तिश्नगी भी है
उसमें ज़िन्दगी भी है
उसमें बंदगी भी है
क्योंकि वो लड़की है

वालदैन की फिक्र भी है
बहन का दर्द भी है
हमसफ़र की तड़प भी है
क्योंकि वो लड़की है

हाथ में छाले होश नहीं
रो - रो के ऑंखें लाल हुईं
ख़ुद से वो बेखबर सी है
क्योंकि वो लड़की है

इधर माँ के दर्द की कराह
उधर हमनशीं का पागलपन
न जाने कौन सी खलिश सी है
क्योंकि वो लड़की है

दुनिया से लड़ने को तैयार
क़दम - क़दम पे सिसकियाँ
मुस्कराहटों की जुस्तुजू सी है
क्योंकि वो लड़की है

नज़र बचाके कहाँ जाए
मुहब्बत से मामूर सीना कहाँ ले जाए
सरापा प्यार की पैकर सी है
क्योंकि वो लड़की है

क्रोशिया , फाउन्तैन, पेंटिंग
और क्या आता है तुम्हें
इन सवालों की झड़ि सी है
क्योंकि वो लड़की है

सर से ओढो दुपट्टा
घर से क़दम बाहर न निकालो
दिल में उठे तलातुम की लहर सी है
क्योंकि वो लड़की है

वो गज़लों की शान हुई
शायरों की ख्याल हुई
अदब में भी वो अदब सी है
हाँ है , वो लड़की है

- रुबीना फातिमा "रोजी"
( मुहम्मद शाहिद मंसूरी) 

07.03.09, '339'

अगर लहू है तो हरकत होनी चाहिए


अगर लहू है तो हरकत होनी चाहिए
वरना बहने को तो समंदर बहा करते हैं



- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
15.08.13 , '338'