लोग कहते हैं अकेला ही चला था मैं
लोग आते गए और कारवां बढ़ता गया
मैं तो कहता हूँ -
कारवां के साथ चला था और
आज अकेला हो गया हूँ.
झूठी दिलासायें और बड़ी तमन्नाएँ
सुन-सुन कर क़दम थमने लगने हैं
हम रुकने लगे हैं
मयकशी के सुरूर से भी
दूर न हुआ ये दर्द और मैं पागल
रेगिस्तान की रेत को पानी समझता रहा
दुनिया हंसने लगी, जमाना भी कहने लगा
तुम वो नहीं जो पहले कभी थे
दर्द दीवारों में समाता गया और मैं
उस दर्द को पीता रहा -पीता रहा
सुबह से ही उदासी थी मगर अब तो
रग- रग से उदास हो गया
ज़िन्दगी ठहर गयी कदम लड़खड़ाने लगे
और मैं आज भी झूठी उम्मीद पर
क़लम चलाये जा रहा हूँ
खुद का अफसाना
कभी खुद को तो कभी औरों को
सुनाये जा रहा हूँ !!!
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
30th May. 05, '213'
लोग आते गए और कारवां बढ़ता गया
मैं तो कहता हूँ -
कारवां के साथ चला था और
आज अकेला हो गया हूँ.
झूठी दिलासायें और बड़ी तमन्नाएँ
सुन-सुन कर क़दम थमने लगने हैं
हम रुकने लगे हैं
मयकशी के सुरूर से भी
दूर न हुआ ये दर्द और मैं पागल
रेगिस्तान की रेत को पानी समझता रहा
दुनिया हंसने लगी, जमाना भी कहने लगा
तुम वो नहीं जो पहले कभी थे
दर्द दीवारों में समाता गया और मैं
उस दर्द को पीता रहा -पीता रहा
सुबह से ही उदासी थी मगर अब तो
रग- रग से उदास हो गया
ज़िन्दगी ठहर गयी कदम लड़खड़ाने लगे
और मैं आज भी झूठी उम्मीद पर
क़लम चलाये जा रहा हूँ
खुद का अफसाना
कभी खुद को तो कभी औरों को
सुनाये जा रहा हूँ !!!
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
30th May. 05, '213'
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