कभी यक़ीन ही नहीं हुआ
मेरे लिए कोई इतना
कर सकता है
शाम को सहर और
सहर को शाम
कह सकता है -
पागलपन की हद तक
उसने माना है मुझे
यहाँ तक कि
मेरे इशारों पे भी
चल सकता है
मेरे दिल में जगह, बनाई है
उसने
अब तो-
क़लम का हिस्सा भी
हो गया है
मैं अजीब तो वो भी
अजीब हो गया है !!!
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
20th June. 05, '206'
मेरे लिए कोई इतना
कर सकता है
शाम को सहर और
सहर को शाम
कह सकता है -
पागलपन की हद तक
उसने माना है मुझे
यहाँ तक कि
मेरे इशारों पे भी
चल सकता है
मेरे दिल में जगह, बनाई है
उसने
अब तो-
क़लम का हिस्सा भी
हो गया है
मैं अजीब तो वो भी
अजीब हो गया है !!!
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
20th June. 05, '206'
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