चाहता तो था तुझे अपनी आँखों से देखूं
और उन आँखों को अपने सीने में छिपा लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
चाहता तो था तुझसे चार प्यार की बातें करूँ
और उन प्यार की बातों को अपने दिल में समा लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
चाहता तो था तेरे हाथ मेंहदी से रचे देखूं
और उस हिना की खुशबू को दामन में ले लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
चाहता तो था बादलों के झुरमुट में पानियों के साए में देखूं
और ऐसे झुरमुट को, उस साए में समेट लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
बस उम्मीद थी कि जा के तुझसे मिलूं
और उस वस्ल को 'अजनबी' के नाम कर दूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
2 nd Aug. 03 , '186'
और उन आँखों को अपने सीने में छिपा लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
चाहता तो था तुझसे चार प्यार की बातें करूँ
और उन प्यार की बातों को अपने दिल में समा लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
चाहता तो था तेरे हाथ मेंहदी से रचे देखूं
और उस हिना की खुशबू को दामन में ले लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
चाहता तो था बादलों के झुरमुट में पानियों के साए में देखूं
और ऐसे झुरमुट को, उस साए में समेट लूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
बस उम्मीद थी कि जा के तुझसे मिलूं
और उस वस्ल को 'अजनबी' के नाम कर दूँ
मगर शायद तुझे मंजूर न था
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
2 nd Aug. 03 , '186'
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