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Saturday, April 12, 2014

एक हूक सी उठती है

एक हूक सी उठती है
मगर दब के रह जाती है
ये उस जहाँ की वो आवाज़ है
जो अनकहे कही जाती है

न फिक्र है उन्हें न है भरोसा
बस अपने में गुम हैं
और एक हम जो जहाँ देखूं
बस वो ही नज़र आती है

ज़िन्दगी क्या अब तो दुश्मन है
मेरा दिल या उसका मन है
उसकी ख़ुशी देखकर ही खुश हूँ
यहाँ तो ख़ुशी बमुश्किल आती है

अजनबी राहों का अजनबी परिंदा
शायद खुद से है शर्मिंदा
बस उम्मीद की दुनिया है कायम
वरना कहाँ अपनी सुबह आती है !!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
14th Oct. 02, '172 '

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