पूरे चाँद की रात
वो और उसके तसव्वुरात
चुपके-चुपके
रात भर बातें करते रहे
कभी नाराज़ हुए
कभी मुस्कुराए
यूँ चला ये सिलसिला
कि सुबह के तारे निकल आये
मगर फिर भी
अधूरा रहा सफ़र
न पूरा हुआ ये सिलसिला
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
31st Oct., 01, '145'
वो और उसके तसव्वुरात
चुपके-चुपके
रात भर बातें करते रहे
कभी नाराज़ हुए
कभी मुस्कुराए
यूँ चला ये सिलसिला
कि सुबह के तारे निकल आये
मगर फिर भी
अधूरा रहा सफ़र
न पूरा हुआ ये सिलसिला
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
31st Oct., 01, '145'
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