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Friday, April 11, 2014

एक दिन बुने थे कुछ सपने

एक दिन बुने थे कुछ सपने
अगली सुबह शुरू हुआ
सपने सच होने का सिलसिला
दोस्तों की दुआएं , खुद की मन्नतें
और अरमान भरा दिल लेकर
शुरू हुआ खुशियों का सफ़र
शाम आते-आते बिखर गए सपने
टूटा दिल और हम भी टूट गए

सब कुछ जाता सा रहा
भरम भी अब अपना न रहा
पहली बार न हुआ ऐसा
मेरे साथ अक्सर हुआ ऐसा

ख्वाब सजते रहे
किस्मत रूठती रही
हम ही थे एक पागल
जो उम्मीद लिए सोचते रहे

सहरा में भी कहीं होता है पानी
अरे नादां !
अब तक तुम किस जमाने में रहे !!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी' 
26th May. 02, '158'

Composed at the famous medical store of Jhansi

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