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Thursday, April 10, 2014

क्यूँ  इतनी तारीकी छाई है अपनी ज़िन्दगी में 
प्यार भी करता हूँ तो तारीक ज़िन्दगी में 

खुशियों के दरीचे से निकली थी चन्द शुआयें 
खो गया उनका वजूद तारीक ज़िन्दगी में 

किताबे मुहब्बत लिखी थी तसव्वुर के आईने से 
सिमट के रह गया हर वरक तारीक ज़िन्दगी में

हर सिम्त से उट्ठी थी वफ़ा की हवाएं 
तिनका नहीं आता नज़र तारीक ज़िन्दगी में 

मौजों की अंजुमन में बैठा है "अजनबी"
क्या सोचना कल के लिए तारीक ज़िन्दगी में 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
17th Oct. 01, '149'

Composed in the truck, Returning journey from Jhansi



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