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Sunday, August 12, 2012

कभी ग़ज़ल में जा बैठे , कभी नज़्म में जा बैठे

होते हैं दीवाने उन परिंदों के माफिक
कभी इस पेड़ पे जा बैठे, कभी उस पेड़ पे जा बैठे

रस्मों के बंधन में मत बांधों इन परिंदों को
कभी इस डाल पे जा बैठे कभी उस शाख पे जा बैठे

इन परिंदों से ही आबाद है दुनिया का चमन
कभी इस बाग़ में जा बैठे कभी उस बाग़ में जा बैठे

अजब होते हैं इनके रिश्ते, अजब होते हैं इनके बंधन
कभी आसमां पे जा बैठे , कभी जमीं पे जा बैठे

इन परिंदों का मकाम क्या पूछते हो "अजनबी"
कभी ग़ज़ल में जा बैठे , कभी नज़्म में जा बैठे

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
9th Dec. 2000, '130'

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