दायरा दोस्ती का और मुहब्बत की बातें
वो रोज कहते हैं कोई ग़ज़ल सुना दें
कैनवस पर तुमको उतरना तो है मुश्किल
कहो तो अल्फाजों में तुमको बना दें
रूठ जाने का सबब पूछे बिना ही
निगाहों में ही वो मुझको मना लें
मेरी ज़िन्दगी का सफा पलट के देखो
दस्ताने इश्क का नगमा सुना दें
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
'193' 27th Aug. 2002
बहुत खूब लिखा आपने
ReplyDeleteshukriya janab
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