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Saturday, April 26, 2014

सुरुरे मय तर-ब-तर हो गया

सुरुरे मय तर-ब-तर हो गया 
शायद रुख से नकाब उतर गया 

साक़ी भी कुछ यूँ ठहर गया 
जैसे कोई आफ़ताब गुजर गया 

क्या मयखाना, क्या शराब, क्या रिन्द
सुना है उसकी आँखों में ग़मे उल्फ़त उतर गया 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
6th June. 12, '282'

सब मौसम बेमौसम से हो गए हैं

सब मौसम बेमौसम से हो गए हैं
जब से वो हमसे दूर हो गए हैं

घड़ी की टिक-टिक से चलती है अब दुनिया
ख्वाब तो जैसे अब चूर हो गए हैं

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
30 Oct. 13, '281'

सर पे टोपी, हाथों में रुमाल आ गया

सर पे टोपी, हाथों में रुमाल आ गया 
मुबारक माहे रमज़ान का साल आ गया 

जंज़ीरों में क़ैद हो गया इब्लीस 
और दिल में काबे का ख़याल आ गया 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
29th June. , 12, '280'

हर किनारे छूटने लगे हैं

हर किनारे छूटने लगे हैं
अपने भी रूठने लगे हैं

चला था जिन रिश्तों के सहारे
वो मरासिम भी टूटने लगे हैं

तुम्हीं बतलाओ कहाँ जाकर रोऊँ
अब आंसू  भी सूखने लगे हैं

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
5th Nov. 13, '279'

हम सौगात की बात करते हैं,




हम सौगात की बात करते हैं,  
वो औकात की बात करते हैं सुना है सोच को 
मरम्मत की ज़ुरूरत है

--- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'

29.06.2012, '278'

तुझे सोचता हूँ , तुझे चाहता हूँ

तुझे सोचता हूँ , तुझे चाहता हूँ
मैं शामो-सहर तुझे मांगता हूँ

ज़िन्दगी की डगर बड़ी है कठिन
कदम- दर-कदम खुद को लुटाता हूँ

न सोचूं तुझे तो कैसी सहर
न चाहूँ तुझे तो क्या चाहता हूँ

अपने हिस्से की खुशियाँ तेरे दामन में भर दूँ
कोई बता दे मुझे, बाद इसके भी क्या चाहता हूँ

-  मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
25th Nov. 12, '277'

ये वो भरम है जो चेहरे पे झलक आता है

ये वो भरम है जो चेहरे पे झलक आता है
हुस्न का पैमाना हो तो जरूर छलक जाता है

साकी ये तो मयखाने का उसूले पैमाना है
जिसे भरा पैमाना दो, वो  छलक जाता है

उस दीवाने का आलम बड़ा ही अजीब है जनाब
खुद को अजनबी बताता है औरों के गले तलक आता है

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी
2nd Aug. 05, '276'

मुझे इसी तखईयुल में जी लेने दो

इस गलत फहमी को
गलत फहमी ही क्यूँ नहीं रहने देते
मुझे इसी तखईयुल में जी लेने दो
ज़िन्दगी के कुछ पड़ाव और हैं बाकी
उन्हें भी यूँ ही गुज़र जाने दो
कम अज कम इस बहाने
ज़िन्दगी के कुछ लम्हात तो गुजर जायेंगे

तुम अपना साथ न बख्शो
ये अपने तखय्युल के
अहसास ही रहने दो
इस गलत फहमी को गलत फहमी ही रहने दो
मुझे जी लेने दो -  मुझे जी लेने दो

ये ज़िन्दगी का सफ़र
बड़ा तवील सा महसूस होता है
तेरे अहसास जिंदा हैं
तो मुझे जिंदा होने का अहसास है
कम अज कम इन्हें तो महफूज़ रहने दो
इसी बहाने हम जी लेंगे
मुझे जी लेने दो - मुझे जी लेने दो

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
11st Dec.12, '275'



Friday, April 25, 2014

हमसफ़र तो है

हमसफ़र तो है, मगर दिल से जुदा -जुदा

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
15th Sep. 12

मुहब्बत एक शै है

मुहब्बत एक शै है, जो खुद में मुकम्मल है 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
17th Sep. 12

सुना है उम्र में बड़ा हो गया हूँ

सुना है उम्र में बड़ा हो गया हूँ
बस की खिड़की पे बैठने की ज़िद नहीं करता

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
10th  Sep. 12 '273'

दिल उखड़ा - उखड़ा सा है

दिल उखड़ा - उखड़ा सा है
जी उदास है
कुछ है कहीं ऐसा
जो नहीं मेरे पास है

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी
11th  July, 12, '272'

आज वाक़ई दर्द है



वो कहते हैं न
कि दर्द है
आज वाक़ई दर्द है
दर्द ने दर्द को
आज कुछ यूं कुरेदा
कि
दर्द ने कराह के कहा कि
बड़ा दर्द है

या तो बातें ही न हों ऐसी
हों तो मंजिले मक़सूद तक
सफ़र तय करें
यूं न छोड़ दें हमारा साथ
जैसे तेज़ आंधी में
शजर का पत्ता
अपने दरख़्त का छोड़ देता है
और ज़माना उसे बड़ी ख़ूबसूरती से
खिज़ां का नाम दे देता है

ऐ मुसव्विर !
जब तूने तस्वीर का खाका खींचा ही था
तो रंग भी भर देता
भरता तो ख़ुदा कि कुदरत से
उसमें रंगों कि बारिश करा देता
खैर!!
दर्द, दर्द न रहकर
ख़लिश कि शक्ल अख्तियार कर लिया
और हम यूं ही
दर्द के हमसफ़र हो गए
और जुबाँ से यही निकला
आह! रे दर्द !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
5th Oct. 2012 '271'

Wednesday, April 23, 2014

तुम्हें पाने की बहुत बड़ी भूल थी

तुम्हें पाने की बहुत बड़ी भूल थी 
मैं तो खार ठहरा तुम तो फूल थी 

तुम तो सहरा के मानिंद थे ऐ दोस्त 
वहां पानी की जुस्तुजू बड़ी भूल थी 

तुम एक बार ज़माने से लड़ने की कहते तो 
हाँ मुझे तेरी हर आजमाइश क़ुबूल थी 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
5th Jan. 07, '269'

खुशियों की ज़मीं

खुशियों की ज़मीं 
खुशियों का आसमां
खुशियों का हो गुलशन 
खुशियों की हों दीवारें 

और इस प्यारे घर में 
खनके तेरी हंसी 
और रहें हम दोनों 
तमाम उम्र नहीं 
ताउम्र तक 
रोज़ी और शाहिद !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
29 Mar. 2008, '268'

Tuesday, April 22, 2014

मुझे अपनी खबर नहीं

मुझे अपनी खबर नहीं 
लेकिन 
उसकी हर शै का इल्म है 
मैं लाख अश्कों के घूँट पी जाऊं 
मगर उसके रूखे अनवर पे 
आई शिकन का बखूबी अहसास है 

मेरे ख्वाब, मेरी तमन्नाएँ, मेरा वजूद 
शक्ले किर्चियों में बिखर के रह गयीं 
समेटूं भी तो क्या समेटूं .......

या अल्लाह !
उसके ख्वाब, उसके तमन्नाएँ,उसके वजूद
ज़िन्दा रख 
उसकी तवील ज़िन्दगी को
खुशियों का आफताब बख्श दे !!

मैं तीरगी में रहूँ तो रहने दे 
उसकी ज़िन्दगी शुआओं से लबरेज कर दे ..

बारगाहे इलाही में उट्ठे हुए हाथ 
बस यही मांगते हैं 
जो उसके जबीं का हो 
वो उसे अता  कर दे 
 मेरे हिस्से का जबीं भी 
उसके नाम कर दे 

चाहे तो मुझे जाया कर दे 
और हो सके तो सफरे धूप में
मुझे उसका साया कर  दे 

या अल्लाह ! 
इसे तमन्नाएँ कह, 
या ख्वाबों की ताबीर समझ 
बस यही अलफ़ाज़ 
मेरी जबां पे रवां कर दे !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
17th Nov.12, '267'

Dedicated to Sanjiv for your Mahboob By - Shahid 'Ajnabi'




न शाहीन सही, न तवील कारवां सही

न शाहीन सही, न तवील कारवां सही
मगर हौसलों का ज़खीरा तो है सही

माना कि दुनिया जीतने की हिम्मत नहीं
कुछ कर गुजरने की हर वक़्त तमन्ना तो है सही

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी' 
10th Nov. 2006 '266'

मैं दुश्मन से भी मिलूं

मैं दुश्मन से भी मिलूं
तो गले लग के मिलूं
एक वो अपने हैं  जो
कहते हैं -
मुझे जानने की जुरुरत क्या है  !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
04th June., 2008, '265'

इक प्यार के वो भी दिन थे

इक प्यार के वो भी दिन थे
रेत के घरौंदे बनाया करते थे

तपती दोपहर या ढलती शाम हो
हर वक़्त हाले दिल सुनाया करते थे

बढ़ती उम्र का अजब नशा था साथियो
ख्याले वक़्त नहीं फ़साना सुनाया करते थे

हाय वो कितनी दिलकश दोपहरें थीं 'अजनबी'
जब हम गुड्डा गुड़ियों को सजाया करते थे

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
11st , Jan. 2006

देखेंगे ज़माना तुझे हम भी आजमा के

देखेंगे ज़माना तुझे हम भी आजमा के 
गुलाब की डंडी और गुलमोहर का फूल थमा के 

शायद ज़िन्दगी में आ जाये कोई मेरे भी 
इक उल्फत का चराग सौ शम्मा जला के 

यूँ हाथ मिलाने और गले लगाने से दोस्ती नहीं होती 
सब कुछ मिटाना होता है यारो कूद को मिटा के 

समंदर में खुद ब खुद साहिल नहीं मिलता 
मौजों से लड़ना होता है खुद को दाँव पे लगा के 

औरों को सलाह देने के काबिल कहाँ तू 'अजनबी' 
तेरी ज़िन्दगी बिखरी है बस यूँ ही चला के 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
5th Mar. 2007

गूंजते रहे सन्नाटे



गूंजते रहे सन्नाटे
सिसकती रही शहनाईयां
 गुम हो गयीं अंगड़ाईयां
रह गयी तो सिर्फ परछाईयाँ

सुना है ख़त्म हुआ
मुहब्बत का सफ़र
ज़िन्दगी अपने रंग से
बदरंग हो गयी
तड़प अब तड़प न रहकर
इक शायरी हो गयी

अदब के कुछ और पन्ने रंग गए
देखो तुम खुद ही देखो
अदब की जमीं पे
एक और नज़्म नमूदार हो गयी  !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
20th  Feb. 11


सुना है तुम नज्में लिखते हो

सुना है तुम नज्में लिखते हो
सुना है तुम ग़ज़लें कहते हो
सुना है तुम कविता करते हो
सुना है तुम रुबाईयाँ सुनते हो
मुसव्विर हो नहीं
मगर मुसव्विर सा दिल रखते हो

- मुह्म्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
29th Nov. 12

Friday, April 18, 2014

इसी मोड़ पे लहराता हाथ छोड़ आया था

इसी मोड़ पे लहराता हाथ छोड़ आया था
हाथ क्या, यूं समझो ज़िन्दगी का साथ छोड़ आया था

शकले आसुओं में मुहब्बत की विरासत दे गयी
वरना कब का मैं वो शहर छोड़ आया था

अहदे वफ़ा, रंगे मुहब्बत सब छूट गए
इक दिल था शायद वहीँ छोड़ आया था

ये साँसों का सफ़र है जो दिन-ब- दिन चल रहा है
वरना खुद को तो कब का वहीं छोड़ आया था

बेवजह ढूंढती हैं नज़रें उन आँखों की नमी को
जिसे उसी दिन मैं खुदा के हवाले छोड़ आया था

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"  
20th Aug. 2012 '260'

माँ मेरी बहुत प्यारी है

माँ मेरी बहुत प्यारी है
मुझे डांटती है, मुझे मारती है
फिर मुझे खींच के
सीने से लिपटा लेती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

चौका बासन भी करती  है
घर का सारा काम वो करती है
ग़म मेरे होते हैं ,और उठा वो लेती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

देर रात मैं खाने को कुछ कह दूं
मेरे ऊपर चिल्लाती रहती है
मगर ख्वाहिश फिर भी पूरा करती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

चलो आज बैठक धो दूं
चलो आज आँगन धो दूं
कुछ नहीं, तो कोई काम निकाला करती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

जब भी घर से आऊँ
बस यही कहा करती है
बेटा घर खाली हो  गया
अब कब आओगे
माँ मेरी बहुत प्यारी है

उसकी उँगलियों में न जाने कौन सा जादू है
हाथ मेरे सर पे रखती है
और खुद अपनी आँखों को भिगो देती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है


- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
5th July, 2012 '259'

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मेरे जीने का सहारा फेसबुक
मेरे मरने का सहारा फेसबुक
सुबह हुई फेसबुक
दोपहर हुई फेसबुक
शाम आई फेसबुक
रात होने को है फेसबुक

बत्ती गुल, मोबाईल पे चलता है फेसबुक
कोई नया बन्दा आया दुनिया में
खबर देता है फेसबुक
मरने की घड़ी है
Status अपडेट करता है फेसबुक

पापा ने पूछा 'खाना खा लो"
मम्मी ने कहा- 'बेटा पानी पी लो'
But वो तो Busy  है सिस्टर को दिखाने में फेसबुक

कभी पेज Create करता है
कभी बनता है किसी ग्रुप का Admin 
बस उसे तो मतलब है
Like  और Comments  से
न शादी से न टेंट से
you  Tube  पे जाके करता है
Share  कोई गाना 
नहीं परवाह
सुने चाहे मामा, सुने चाहे नाना

क्लास में है फेसबुक
घर में है फेसबुक
wash  रूम में है फेसबुक
उल- जुलूल फोटो करता है Tag 
चाहे क्लास में भूल जाये अपना Bag 

जानता है-
नज़र भर नहीं देखी उसकी Applications 
फिर भी बार-बार चैक करता है Notifications 
घर भर के Profile  बना डाले उसने
कभी इससे Log  In करता है
कभी उससे Log  In  करता है
पर नज़रों में रहता है बस फेसबुक

कहाँ रही वो ज़मीनी हकीकतें
कहाँ  रहे वो संस्कार
न रहा वो प्रेम
न रहा शाश्वत प्यार 
फेसबुक का इंसान खुश है 
देख कर Virtual  संसार 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी" 
18th Sep. 2011, '258'

रुंधे हुए गले का जवाब

तंगहाली की वो आइसक्रीम
चन्द
रुपयों के वो तरबूज
किसी गली के नुक्कड़ की वो चाट
सुबह
- सुबह
पूड़ी
और जलेबी की तेरी फरमाइशमुझे आज भी याद है
कैसे
भूल जाऊं
अम्मी से पहली मुलाकात
और मेरी इज्ज़त रखने के लिएपहले से खरीदा गया तोहफामेरे हाथों में थमाना
ये कहते हुए किअम्मी को दे देनाकैसे भूल जाऊं

वो
नेकियों वाली
शबे
बरात कि अजीमुश्शान रातकहते हैं
हर
दुआ क़ुबूल होती है उस रात
मुहब्बत से मामूर दिल
और
बारगाहे इलाही मेंउट्ठे हुए हाथ
हिफाजते
मुहब्बत के लिएकैसे भूल जाऊं

कैसे
भूल जाऊंवो पाक माहे रमज़ानसुबह सादिक का वक़्त
खुद के वक़्त की परवाह किये बगैर
सहरी के लिए मुझको जगाना
दिन भर के इंतज़ार के बाद
वो मुबारक वक्ते अफ्तारी
हर रोज मिरे लिए कुछ मीठा भेजना
कैसे भूल जाऊं

मेरा
वक़्त- बे- वक़्त डांटना
क्यूँ
भेजा था तुमने
कल
से मत भेजना
और वहां से-
वही
मखमली आवाज़ में
रुंधे हुए गले का जवाबहो सकता है
ये
आखिरी अफ्तारी हो
खा लो शाहिद
मेरे हाथों की बनी हुयी चीजें
जाने
कब ये पराये हो जाएँ
कैसे भूल जाऊं.......

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी
5th June 2011, '257'