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Thursday, December 30, 2010

आईना

देखती है जब वो आईना
तो नज़र आता है उसे चेहरा मेरा
क्योंकि
उसका चेहरा भी इक आईना है
जिसमें दिखता है चेहरा मेरा

मेरे हमराही
देखता हूँ जब मैं चेहरा तेरा
खिल उठता है तन मन मेरा
बजने लगता है सितार
गूंज उठती है शहनाई
और कहता है ये दिल
मत मेरे दिल को इतना सताओ
अब और भी तड़पाओ
बस अब करीब और
जल्दी ही मेरे करीब जाओ !

मान लो दिल की बात
चलें फिर साथ- साथ
उस रास्ते पर, जहाँ मंजिल भी
है या नहीं ????

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'

'14' 8th Apr., 1999

Thursday, December 16, 2010

ख़ुशी को ख़ुशी से

ख़ुशी को ख़ुशी से बिता भी पाए
लो ये ग़म के दिन गए
दिल से दिल की निकली थी कोई आरज़ू
और ये दिल के अरमां चले गए

जुल्फों को ठीक से बिखेरा भी था उनकी
ही दिल भर के देखा था उनको
वो तो मुझ पर बिजलियाँ गिरा के चले गए

राहे याद उनको वो कसमें, वो वादे
जो किये थे हमने उनसे खुले आसमाँ के नीचे
लाख रोका मैंने उनको पर उसने इक मानी
और मुझे इस तरह छोड़ कर चले गए

पर जाते - जाते दे गए इक तोहफा
बहाने के लिए अश्क और समझाने के लिए दिल
शायद उन्होंने मुझे समझा "अजनबी'
जो इस तरह जुदा होकर चले गए !!!!!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"

'13' 7th March, 1999

Wednesday, December 15, 2010

दुल्हन

बनेगी जब तू दुल्हन मेरी
मैं हूँगा दूल्हा तेरा
याद करेगी तू वो दिन
जब सोचते थे हम और तुम
की
कैसे होगा मेरा और उम्हर मिलन
बीच में थी ये जालिम दुनिया
रास्ते में थे काँटों रूपी लोग
आज तुम उस दीवार को तोड़कर
उन काँटों पर चलकर आयी हो
अपने इस यार की बाँहों में समाने के लिए
! मेरे प्यार, जल्दी
जाए बीच में कोई और दीवार
मुबारक हो तुमको आज का ये दिन
मेरे लिए है जो इक यादगार दिन

यहाँ नहीं मिल पाते हैं लोग
मिलके बिछड़ जाते हैं लोग
बड़ी किस्मत वाले हैं हम और तुम
जो समाये हुए हैं आज
इक दूसरे की बाँहों में !!!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"

'12' 4th March, 1999

Tuesday, December 14, 2010

अंकुर

आज जब मैं खोया हुआ था
ख्वाबों में
सोच रहा था
उस अंकुर के बारे में
जो आज अंकुर नहीं
शायद कुछ और हो गया
लगा जैसे
वो तो आज वृक्ष हो गया
कुछ दिनों बाद आया पतझड़
और उड़ा ले गया उसके
हरे भरे पत्तों को
और मैं देखता रह गया
इन सारे नजारों को
अहसास नहीं हो रहा था
विश्वाश नहीं हो रहा था
कि
वो अंकुर ऐसा कैसे हो गया ?
शायद पहचान सका वो,
इस अजनबी को
और रह गया "अजनबी" से
अजनबी बनकर!!!!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'

'11' 28th Feb., 1999

Friday, December 10, 2010

प्रेम दिवस

मिलते हैं इस दिन 'वो"
कहते हैं वो इस दिन
जो कह सके कभी
i love you, i love you!

डरता है दिल करने से इकरार
सोचता है कहीं कर दे वो इंकार

ये खुशकिस्मत दिन
शायद मिलता है उसी को
जो दिल देता है किसी को
दिल दे देने के बाद, वो
दे देता है जाने क्या -क्या

उसमें अश्क़, बेबसी, सिसकना
होता है जरुर१

सोचना आन्हें भरना
और तन्हाई में चुपके से रोना
शायद बन जाती है इक आदत सि१

इस दिन को कहूँ मैं क्या
अच्छा ,बहुत अच्छा या बुरा?

इस आज़ाद ज़िन्दगी को बाँध लेता है
वो उस बंधन से
जिसे तो तोड़ सकती है आंधी
और उदा सकता है तूफ़ान

इस दिन तो हो जाते हैं
दो दिल इक
और धड़कन कह उठती है
i love you, i love you!

यही है वो day
जिसे कहते हैं valentine day!!!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'


'10' 13rd Feb. 1999

Tuesday, December 07, 2010

वो मेरे क़रीब थे

वो मेरे क़रीब थे
मैं उनके क़रीब था
ये तो मेरा नसीब था
कि

मैं इन हसीं लम्हों को
उसके साथ गुजार रहा था
धुली हुई चांदनी थी
रत अपने शवाब पर थी
तारे भी गवाही दे रहे थे
इन सब हालातों के मद्देनज़र
हम दोनों मुजरिम से बैठे हुए थे

चाँद अपनी चांदनी से पूछ रहा था
कि
ये कौन हैं?

सुबह शबनम भी निशा से कहती थी
कि
रात में कैसी थी ये हलचल ?
तारे नज़ारे
डालियों का हिलना, पत्तों की सरसराहट

चाँद चांदनी, सरे जग की रौशनी
कहते हैं हो के इक साथ
कल दो नयन थे इक साथ

जैसे ही आगे कुछ होने वाला था
कोई कुछ कहने वाला था
कि
जाने कैसे ये सुबह हो गयी
और मैं यूँ ही...............................

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"

'9' 24th Jan. 1999

Wednesday, July 14, 2010

क्या करूँ, क्या न करूँ?

समझदार होते हुए भी मैं
हो गया न समझदार
कहाँ गया वो भोलापन
कहाँ गयी वो समझदारी
जिसे मानता था मैं धरोहर

पाया हूँ जब से प्यार तुम्हारा
हो गया हूँ मैं तो पागल
कसम से मेरे जाने जाँ
नहीं है होश अब तो

नज़र आते हो चारों ओर
बस अब तुम्हीं तो हो !
क्या करूँ , क्या न करूँ ?
नहीं आता है अब तो
समझ में !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
"8" 25th Jan, 1999

Thursday, July 08, 2010

बेवफा

होना कभी तुम बेवफा
रहना हमेशा बावफा
करते हैं तुमसे ऐसी ही आशा
ज़िन्दगी में देना कभी तुम निराशा

तुम बिन ये जीवन
जीवन नहीं
बिन पानी के बरसात सा
रह जायेगा!
अगर तुम मिल सके
तो इस सफ़र का
शायद यहीं अंत हो जायेगा

गर दिया साथ तुमने
तो
ये ऑंखें बरस पड़ेंगी और
ये दिल कह उठेगा
बेवफा! बेवफा! बेवफा!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी"अजनबी"

16th Jan, 1999, '7'

Tuesday, June 29, 2010

शाम जाया कर दी

इक शाम और जाया कर दी
हमेशा की तरह
देखकर यूँ ही चंद तमाशे
और झूठी तालियों के दरमियाँ

तमाम बनावटी चेहरे
भागती हुई ज़िन्दगी की रेस से
चंद ठिठके हुए क़दम !!!

लाख कोशिश की मैंने
बहल जाये ये कमबख्त दिल
दिल भी क्या
जो जिद पे अड़ा हो

दिल जिद पे अड़ा रहा
मैं ग़म के साथ खड़ा रहा

अकुला भागा उस भीड़
और बेसुरी आवाज़ों से

भारी मन था
भारी ही रह गया
और मैंने फिर
इक शाम जाया कर दी !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी
 25th June, 2010, '255'

उनका तो नाम बिकता है

उनका तो नाम बिकता है बाज़ार में
वो कुछ भी लिख दें छपना ही छपना है
बाज़ार ही कुछ ऐसा है

लोग तो यहाँ तक कहते हैं - आज की
डिमांड है जो उनहोंने लिखा है
किसी फिल्म के साथ उनका नाम जुड़ जाए
तो समझो हिट होनी ही होनी है
चाहे तुकबंदी ही क्यों न हो या
शब्द चीख -चीख कर दम तोड़ रहे हों

सुना था जुगाड़ से सरकार चलती है
मगर यहाँ तो ज़िन्दगी और संघर्ष के
मायने ही बदल रहे हैं
कीमती पत्रिकाओं के चिकने पन्ने
उन्हें छापने की होड़ में लगे हैं , और
परदे के पीछे हिसाब हो रहा है
किसने कितना कमाया ?

मगर आज इन्हीं नाम बिकने वालों के
बीच में एक जोशीली नई कलम
अपने उभरते हस्ताक्षर छोड़ के आयी है
वो कवि नहीं है, जेब खली है, पढने में संघर्षरत है
आज नामों के बाज़ार में
अपनी भावनाएं छोड़ आया है

और पल- पल सोचते हुए कि
छपेगा- नहीं छपेगा
एक नया नाम उजाला पाने के लिए
क़दम- दर- क़दम बढ़ाये जा रहा है .....

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
17th Oct., 2005, '239'

मैं एक आम इंसान हूँ

मैं एक आम इंसान हूँ
लेकिन
तेरे साथ चलकर
खास होने का गुमाँ सा होता है

वो भ्रम भी
भरम में तब्दील होने लगता है
मैं लम्हा -लम्हा जीने लगता हूँ
मेरी घड़ी- घड़ी कीमती होने लगती है
जानता हूँ मुझे कोई नहीं जानता
लेकिन
तेरे साथ होकर
ज़माने कि पहचान होने लगता हूँ
सफ़र, फिर सफ़र न रहकर
ज़िन्दगी जीने का अहसास लगता है

कौन चाहेगा मुझे पढ़ना ?
गर तेरे साथ बिताये
माजी के पन्ने उलट दूँ-
तो अदब, अदब न रहकर
वज्मे सुखन होने लगता है !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
4th Jan, 2008, '242'

आँख नशीली बात शराबी

आँख नशीली बात शराबी, और बिखरी जुल्फें
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है


साँसें बहकी, दिल झूमा, और बेवजह खनखनाहट
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

तसव्वुर में कोई सूरत और दिल में वो ही मूरत
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

अशआर नज़्म और उसके चारसू ग़ज़ल
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

कहकशां की रौशनी, तन्हाईयों की तिश्नगी और तुम
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

कसमें वादे आंसू तड़प और है बस "अजनबी"
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'151' 27th Mar. 2002

जज़्बात का कागज़

जज्बात के कागज़ से मैंने बुनी थी एक पतंग
सांसों कि डोर से चाह था उसको उडाना
दूर कहीं आसमानों मैं
हवाओं का रुख मेरे हक मैं था
बरसात का अंदेशा न था

मैं और मेरी ज़िंदगी बड़े खुश थे उस शाम
मेरे हाथ में पतंग की डोर और
मेरी ज़िंदगी पकड़े थी चरखा
न जाने किस जानिब से
उठा तूफां और जमकर हुई बरसात

मेरी पतंग बिखर चुकी थी
सांसों कि डोर टूट चुकी थी
मेरी ज़िंदगी तूफां के हवाले थी
अब मैं था और मेरी मायूसी
और जज्बात का कागज़ भी चुक गया था !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
11st May, 2002, '161'

राहे उल्फत

राहे उल्फत में काँटों के सिवा कुछ भी नहीं
दिल के आईने में ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं

दुनिया की नज़र में, मैं एक ऐतवार सही
मगर तेरे बिन मेरा भरम कुछ भी नहीं

हर इक क़तरे में तेरा अक्स जो हो
साक़ी जाम सुराही और ख़म कुछ भी नहीं

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'165' 24th June 2002


कम है समंदर

शायद मुहब्बत का जलता हुआ चिराग देखा है
मैंने तेरी आँखों में इक आफ़ताब देखा है

यूँ तो हर रोज खुशियों की दुनिया में रहा मैं
मगर तेरी आँखों में एक अजब ख्वाब देखा है

कम है समंदर, कम है दरिया, कम है सारा आलम
मैंने तेरी आँखों में मुहब्बत का वो ताब देखा है

फिजा में कहाँ है मयस्सर वो दिलनशीं टुकड़ा
मैंने तेरी आँखों में ऐसा माहताब देखा है

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
'179' 10th June 2003

Dedicated to the art of my heart, my beloved, only and only my life ...
on your birthday, please accept this poem. i have nothing to give at this time, so accept it 
Meerut.