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Friday, April 11, 2014

शहर दर शहर होते वीरान रहे

शहर दर शहर होते वीरान रहे
एक हम थे जो खुद से अनजान रहे

वो मेरे जिस्म की तलाश में था
हम उनके ताउम्र निगहबान रहे

तुम चलो साथ-साथ  साया बनकर
चाहे फिर क्यूँ न वो अहसान रहे

जिनकी धड़कन से है ज़िन्दगी मेरी
वो साथ हों तो सफ़र आसान रहे

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
20th Aug. 02, '168'

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