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Wednesday, April 09, 2014

पूरे चाँद की रात

पूरे चाँद की रात 
वो और उसके तसव्वुरात 
चुपके-चुपके 
रात भर बातें करते रहे 
कभी नाराज़ हुए 
कभी  मुस्कुराए
यूँ चला ये सिलसिला 
कि सुबह के तारे निकल आये
मगर फिर भी 
अधूरा रहा सफ़र 
न पूरा हुआ ये सिलसिला 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
31st Oct., 01, '145'

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