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Wednesday, April 16, 2014

शायद मैंने तुम्हें दिल से चाहा ही नहीं

शायद मैंने तुम्हें दिल से चाहा ही नहीं
गर चाहा तो सच्चे दिल से माँगा ही नहीं
गर खुदा से माँगा होता
तो तुम किसी और के नहीं होते
मेरे और सिर्फ मेरे होते

माना कि
साथ हमारे औरों की दुआएं न होती
मगर रब तो अपने साथ होता
बहारें न सही खिजां तो साथ होती
शोहरत और दौलत न सही
हमारी मुहब्बत तो साथ होती

कमी मेरी मुहब्बत में थी दोस्त
वरना तेरा महबूब तेरे पास होता
अब हालात को इल्जाम देना ठीक नहीं
देना ही है इल्जाम तो  मुझे दो

ये हालात तो कल भी अपने थे
और आज भी अपने हैं
और शायद हमेशा हमारे रहते  !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
22nd  Dec. 06, '241'

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