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Wednesday, May 07, 2014

काश कि कोई ज़िन्दगी समझ पाता

काश कि कोई ज़िन्दगी समझ पाता
तो यूँ न कोई जलालत उठाता

गर कोई जज़्बातों का क़द्रदां होता
तो यूँ न बेवजह फ़साना होता

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
19.07.08, '304'

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