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Thursday, May 08, 2014

कितना कुछ बदल गया न



कितना कुछ बदल गया न
पहले तो ऐसा न होता था
मेरा इंतज़ार होता था
मैं खाना खा के आऊँ , तब भी पूछा जाता था
खाना खायेंगे न
मैं रात को जब भी आऊँ
गर्म पराठों के साथ कुछ मीठा दिया जाता था
कितना कुछ बदल गया न

अक्सर लोग कहा करते थे
तुम नहीं रहते तो यहाँ खामोशी रहती है
तुम आ जाते हो
तो फजाओं में चहचहाहट आ जाती है

लिखते रहो दर्द, ढ़ोते रहो ग़म
इससे क्या होना है ?
सच है- सौ फीसदी सच है
कमाया ही क्या है आज तक
न इज्ज़त, इ शोहरत, न दौलत

कमाने के नाम पे अगर कुछ है
तो ये आड़े तिरछे लफ्ज़

याद आता है वो गुजरा हुआ ज़माना
जब ग़मों का लबादा ओढ़े हुए आया था इस शहर
तब शहर ने ख़ुशी- ख़ुशी अपनाया था
लगता है अब इस कानपुर शहर को
ये "अजनबी" रास नहीं आ रहा
चल छोड़ ये शहर, चल छोड़ ये गलियाँ
अब सब हुआ बेगाना, सब हुआ अनजाना

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
19.01.2014, '329'

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