वक़्त न जाने क्या सोचकर क्या लिखवा
देता है-
सारी डिग्रियां एक तरफ
मजदूर की थकन एक तरफ
कबीर के दोहे एक तरफ
ग़ालिब का कलाम एक तरफ
अमीरे शहर की रौशनी एक तरफ
तीरगी में चमकता जुगनू एक तरफ
मयखाने की लग्ज़िशें एक तरफ
सुरूरे मुहब्बत एक तरफ
सारे ज़माने का ओढना एक तरफ
और माँ का आँचल एक तरफ
-- शाहिद "अजनबी"
19.06.2012, '341'
क्या बात है। लाजवाब प्रस्तुति।
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