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Thursday, May 08, 2014

वो जो तुम मांग लेते हो



वो जो तुम मांग लेते हो
मेरी सिगरेट के, आखिरी दो- चार कश
और मैं , बेतकल्लुफी से इंकार कर देता हूँ
दर असल बात इतनी सी है

मैं सिगरेट कहाँ पीता हूँ
कश- दर- कश
ज़िंदगी की गिरहें खोलने लगता हूँ
उन गिरहों में पोशीदा जज़्बात जीने लगता हूँ

सो जी लेने दे मेरे यार
यूं मांग के सिगरेट मत छेड़ो, उन गिरहों को
खुलने दो- खुलने दो
उन पोशीदा अहसासों को
जो ख्वाब के मानिंद हैं
सो डर ह, उड़ न जाएँ धुंए की तरह !

- शाहिद "अजनबी"

22.03.2013, '326'

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