इक शाम और जाया कर दी
हमेशा की तरह
देखकर यूँ ही चंद तमाशे
और झूठी तालियों के दरमियाँ
तमाम बनावटी चेहरे
भागती हुई ज़िन्दगी की रेस से
चंद ठिठके हुए क़दम !!!
लाख कोशिश की मैंने
बहल जाये ये कमबख्त दिल
दिल भी क्या
जो जिद पे न अड़ा हो
दिल जिद पे अड़ा रहा
मैं ग़म के साथ खड़ा रहा
अकुला भागा उस भीड़
और बेसुरी आवाज़ों से
भारी मन था
भारी ही रह गया
और मैंने फिर
इक शाम जाया कर दी !!!
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
25th June, 2010, '255'
हमेशा की तरह
देखकर यूँ ही चंद तमाशे
और झूठी तालियों के दरमियाँ
तमाम बनावटी चेहरे
भागती हुई ज़िन्दगी की रेस से
चंद ठिठके हुए क़दम !!!
लाख कोशिश की मैंने
बहल जाये ये कमबख्त दिल
दिल भी क्या
जो जिद पे न अड़ा हो
दिल जिद पे अड़ा रहा
मैं ग़म के साथ खड़ा रहा
अकुला भागा उस भीड़
और बेसुरी आवाज़ों से
भारी मन था
भारी ही रह गया
और मैंने फिर
इक शाम जाया कर दी !!!
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
25th June, 2010, '255'
बहुत खूबसूरती से लिखा है...
ReplyDeleteमंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
कृपया कमेंट्स की सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन को हटा दें तो टिप्पणी करने वालों को आसानी होगी .
nice, nice,and nice.....
ReplyDeleteनाइस
ReplyDeleteदिल भी क्या
ReplyDeleteजो जिद पे न अड़ा हो
वाह...क्या बात कही है आपने...सुभान अल्लाह...राजेश रेड्डी जी का एक शेर याद आ गया...
दिल तो इक बच्चे की मानिंद अड़ा है जिद पर
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं
नीरज
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteलगता है डाइरेक्ट दिल से लिखा है..... बहुत खूब!
ReplyDelete"लाख कोशिश की मैंने
बहल जाये ये कमबख्त दिल
दिल भी क्या
जो जिद पे न अड़ा हो"
dinon बाद पढने को मिली एक खूबसूरत नज़्म.भाई उच्चारण दुरुस्त कर लें यानी जिद को ज़िद और जाया को ज़ाया तो ख़ूबसूरती में और चाँद लग जाएँ.
ReplyDeleteइस्लाम में कंडोम अवश्य पढ़ें http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post.html