Followers

Tuesday, June 29, 2010

शाम जाया कर दी

इक शाम और जाया कर दी
हमेशा की तरह
देखकर यूँ ही चंद तमाशे
और झूठी तालियों के दरमियाँ

तमाम बनावटी चेहरे
भागती हुई ज़िन्दगी की रेस से
चंद ठिठके हुए क़दम !!!

लाख कोशिश की मैंने
बहल जाये ये कमबख्त दिल
दिल भी क्या
जो जिद पे अड़ा हो

दिल जिद पे अड़ा रहा
मैं ग़म के साथ खड़ा रहा

अकुला भागा उस भीड़
और बेसुरी आवाज़ों से

भारी मन था
भारी ही रह गया
और मैंने फिर
इक शाम जाया कर दी !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी
 25th June, 2010, '255'

8 comments:

  1. बहुत खूबसूरती से लिखा है...

    ReplyDelete
  2. मंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

    कृपया कमेंट्स की सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन को हटा दें तो टिप्पणी करने वालों को आसानी होगी .

    ReplyDelete
  3. दिल भी क्या
    जो जिद पे न अड़ा हो

    वाह...क्या बात कही है आपने...सुभान अल्लाह...राजेश रेड्डी जी का एक शेर याद आ गया...
    दिल तो इक बच्चे की मानिंद अड़ा है जिद पर
    या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

    नीरज

    ReplyDelete
  4. लगता है डाइरेक्ट दिल से लिखा है..... बहुत खूब!

    "लाख कोशिश की मैंने
    बहल जाये ये कमबख्त दिल
    दिल भी क्या
    जो जिद पे न अड़ा हो"

    ReplyDelete
  5. dinon बाद पढने को मिली एक खूबसूरत नज़्म.भाई उच्चारण दुरुस्त कर लें यानी जिद को ज़िद और जाया को ज़ाया तो ख़ूबसूरती में और चाँद लग जाएँ.
    इस्लाम में कंडोम अवश्य पढ़ें http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post.html

    ReplyDelete