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Tuesday, June 29, 2010

इश्क़ और बदनामी

इश्क़ और बदनामी हमेशा साथ- साथ चलते हैं
जब मंजिल है एक तो हमराही रास्ते क्यूँ बदलते हैं

आज की दौलत और बस आज का है वजूद
वरना कल तो हम सब सिर्फ हाथ मलते हैं

उसे मिली शोहरत, इज्ज़त और मिला ओहदा
अरे जनाब आप बेवजह क्यूँ जलते हैं

ज़िन्दगी बिखर जाने का ग़म कैसा है "अजनबी"
हर शाम को सूरज की तरह हम भी ढलते हैं

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी" 10th March. 2004, '182'

with the co operation of Alok

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