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Tuesday, June 29, 2010

कहाँ हैं

कहाँ हैं वो कसमें , कहाँ हैं
कहाँ हैं वो वादे
जो किये थे तुमने कभी
खुले आसमां के नीचे ...... कहाँ हैं

कहाँ हैं वो सिसकियाँ
कहाँ हैं वो मुस्कराहटें
जो महसूस की थी तुमने कभी
चांदनी के साए में......... कहाँ हैं

कहाँ है वो रूठना
कहाँ है वो मनाना
अपने हाथों से वो
खुद का झूठा खिलाना.......... कहाँ है

कहाँ है वो रातों का आलम
कहाँ है वो आंधी का मौसम
सरे आलम से हो के निहा
खिलता जब मुहब्बत का मौसम ...... कहाँ है

कहाँ है वो पलकों का झुकना
कहाँ है आँखों का बेवजह रुकना
दिल ही दिल में दो दिलों का
वो पल भर का हँसना...........कहाँ है

काश वक़्त रुक जाता वहीँ ठहरकर
शायद खुश होता "अजनबी" रोकर
अब कहाँ से लाऊं गुजरे ज़माने की दुनिया
जो जा चुकी है मुझे छोड़कर....................... कहाँ है !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी" 3rd May, 2003, '185'

This poem is very effective in my life . it is very sweet & touchable poem for my life.

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