Followers

Tuesday, June 29, 2010

जज़्बात का कागज़

जज्बात के कागज़ से मैंने बुनी थी एक पतंग
सांसों कि डोर से चाह था उसको उडाना
दूर कहीं आसमानों मैं
हवाओं का रुख मेरे हक मैं था
बरसात का अंदेशा न था

मैं और मेरी ज़िंदगी बड़े खुश थे उस शाम
मेरे हाथ में पतंग की डोर और
मेरी ज़िंदगी पकड़े थी चरखा
न जाने किस जानिब से
उठा तूफां और जमकर हुई बरसात

मेरी पतंग बिखर चुकी थी
सांसों कि डोर टूट चुकी थी
मेरी ज़िंदगी तूफां के हवाले थी
अब मैं था और मेरी मायूसी
और जज्बात का कागज़ भी चुक गया था !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
11st May, 2002, '161'

No comments:

Post a Comment