जज्बात के कागज़ से मैंने बुनी थी एक पतंग
सांसों कि डोर से चाह था उसको उडाना
दूर कहीं आसमानों मैं
हवाओं का रुख मेरे हक मैं था
बरसात का अंदेशा न था
मैं और मेरी ज़िंदगी बड़े खुश थे उस शाम
मेरे हाथ में पतंग की डोर और
मेरी ज़िंदगी पकड़े थी चरखा
न जाने किस जानिब से
उठा तूफां और जमकर हुई बरसात
मेरी पतंग बिखर चुकी थी
सांसों कि डोर टूट चुकी थी
मेरी ज़िंदगी तूफां के हवाले थी
अब मैं था और मेरी मायूसी
और जज्बात का कागज़ भी चुक गया था !!!
-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
11st May, 2002, '161'
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