काश पानी पे लिखी अपनी मुहब्बत होती
बिछड़ने का ग़म न मिलने की शिद्दत होती
गुलमोहर के फूलों सी आँहें हमारी तुम्हारी
दिन में बेचैनी न रातों को क़यामत होती
किताबे माजी के पन्ने पलटने से क्या फायदा
पहले सोचा होता शायद न ये मुहब्बत होती
मेरे इशारों को समझने में वक़्त लगा दिया
वरना आज वो मेरी अपनी अमानत होती
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
'195' 27 Mar., 2004
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