आज मैंने उसके नाम आख़िरी ख़त लिखा
जो कभी नहीं कुछ ऐसा आज तमाम लिखा
मौजों की अंजुमन से दिल के मकाँ को
मैंने अन्जान सा इक ऐसा पयाम लिखा
जाने क्यूँ सारे रिश्ते तोड़ दिए उस माहताब से
आज उस आफ़ताब को आखिरी सलाम लिखा
मेरी लग्जिशों पर रिन्द तनक़ीद करने लगे
और मैंने उसे ज़िंदगी का आख़िरी जाम लिखा
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'223' 27th July, 2003
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