ओ इस जहाँ को बनाने वाले
तुझे भेज रहा हूँ आज में सलाम!
दिली तमन्ना है मेरी
कि कर लेना इसे कुबूल
बनाई हैं तूने ऐसी ऐसी चीजें
देखता हूँ तो देखता ही रहता हूँ
सोचने पर मजबूर हो जाता है मन
इसी में खो जाना चाहता है मन
क्या आसमां है क्या जमीं है
कहीं पहाड़ हैं तो कहीं नदी है
अक्सर मैं सोचता हूँ
कितने अहसान फरामोश हैं यहाँ के लोग
जो जरा भी नहीं सोचते उसके बारे में
कहते हैं ये और
नहीं है कोई जो रास्ता दिखा रहा
है इस दुनिया को
ओ साडी प्रकृति को सँवारने वाले
नहीं आ रहा है समझ में मेरी
कैसे करूँ मैं तारीफ तेरी।
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
23rd Apr. 1999 '1'
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