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Monday, June 28, 2010

दिल, दर्द अहसास

इज्ज़त बढाकर खुद मुझको सरेआम करते हो
क्यूँ इस बदनाम को और बदनाम करते हो

आजकल अँधेरे में गुजर रही है ज़िन्दगी अपनी
चन्द शुआयें बची हैं उन्हें भी शाम करते हो

दिल, दर्द, अहसासों से बड़ा रिश्ता रहा अपना
आज भरी महफ़िल में उन्हें क्यूँ नीलम करते हो

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
28th Sep. 05, '270'

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