वो कहते - कहते चुप हो जाना तेरा
मेरी हलकी सी झिझक और शर्मना तेरा
वो माजी की बातें और उल्फत का साहिल
ऐसे आलम में अश्कों का आना तेरा
वो बाहें, वो गेसू, और वो प्यारे से आरिज
और फिर इसके दरमियाँ मुस्कुराना तेरा
अब तो ज़िन्दगी की हर दीवार उजड़ी है "अजनबी'
जब तक हासिल नहीं उल्फत का सामयाना तेरा
-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
15th Sep. 2003 '189'
This Poem is composed in The Barauni- Gwalior Train.
मेरी हलकी सी झिझक और शर्मना तेरा
वो माजी की बातें और उल्फत का साहिल
ऐसे आलम में अश्कों का आना तेरा
वो बाहें, वो गेसू, और वो प्यारे से आरिज
और फिर इसके दरमियाँ मुस्कुराना तेरा
अब तो ज़िन्दगी की हर दीवार उजड़ी है "अजनबी'
जब तक हासिल नहीं उल्फत का सामयाना तेरा
-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
15th Sep. 2003 '189'
This Poem is composed in The Barauni- Gwalior Train.
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