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Tuesday, June 29, 2010

मैं एक आम इंसान हूँ

मैं एक आम इंसान हूँ
लेकिन
तेरे साथ चलकर
खास होने का गुमाँ सा होता है

वो भ्रम भी
भरम में तब्दील होने लगता है
मैं लम्हा -लम्हा जीने लगता हूँ
मेरी घड़ी- घड़ी कीमती होने लगती है
जानता हूँ मुझे कोई नहीं जानता
लेकिन
तेरे साथ होकर
ज़माने कि पहचान होने लगता हूँ
सफ़र, फिर सफ़र न रहकर
ज़िन्दगी जीने का अहसास लगता है

कौन चाहेगा मुझे पढ़ना ?
गर तेरे साथ बिताये
माजी के पन्ने उलट दूँ-
तो अदब, अदब न रहकर
वज्मे सुखन होने लगता है !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
4th Jan, 2008, '242'

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