मैं एक आम इंसान हूँ
लेकिन
तेरे साथ चलकर
खास होने का गुमाँ सा होता है
वो भ्रम भी
भरम में तब्दील होने लगता है
मैं लम्हा -लम्हा जीने लगता हूँ
मेरी घड़ी- घड़ी कीमती होने लगती है
जानता हूँ मुझे कोई नहीं जानता
लेकिन
तेरे साथ होकर
ज़माने कि पहचान होने लगता हूँ
सफ़र, फिर सफ़र न रहकर
ज़िन्दगी जीने का अहसास लगता है
कौन चाहेगा मुझे पढ़ना ?
गर तेरे साथ बिताये
माजी के पन्ने उलट दूँ-
तो अदब, अदब न रहकर
वज्मे सुखन होने लगता है !!!
-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
4th Jan, 2008, '242'
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