काश कि कोई ज़िन्दगी समझ पाता
तो यूँ न कोई जलालत उठाता
गर कोई जज़्बातों का क़द्रदां होता
तो यूँ न बेवजह फ़साना होता
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
19.07.08, '304'
तो यूँ न कोई जलालत उठाता
गर कोई जज़्बातों का क़द्रदां होता
तो यूँ न बेवजह फ़साना होता
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
19.07.08, '304'
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