मैंने उसे भेजा था पैग़ामे वफ़ा
उसने समझा है ये कोई बेवफा
खायीं थीं जिसने मुहब्बत की कसमें
भूल गए वो मुहब्बत की रस्में
छूती थीं फलक को जिनकी तमन्नाएँ
क्या हुआ हश्र अब हम क्या सुनाएँ
छोड़ के दामाँ मेरा उनके पहलू में आ गए
जिनसे हम खफा थे वो उन्हीं के हो गए
"अजनबी" दहर में कोई किसी का नहीं है
है अपना पराया, अपना अपना नहीं है
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
15th June 2000, '90'
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