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Friday, July 20, 2012

इनको कोई आवाज़ दे दे

कहती हुयी हैं कुछ ये ग़ज़लें
इनको कोई आवाज़ दे दे

है इनमें जो कशिश
सारी दुनिया को वो सुना दे

होती है क्या उल्फत
मुहब्बत परस्तों को बता दे

हो जाए बस अह्सासे ग़ज़ल
दिले ग़ज़ल कोई चाक कर दे

ग़ज़लों से मुहब्बत है जिनको "अजनबी"
मेरे ख्यालों को उनके रूबरू कर दे

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
26th July, 2000, '107'

2 comments:

  1. वाह!! बहुत खूब समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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