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Monday, July 23, 2012

अब कोई मुहब्बत की ग़ज़ल सुनाओ

अब मुझे और भी न सताओ 
मेरे दिल को दूर से न बहलाओ 

नहीं आ सकते गर मेरे सामने 
तो मेरे ख्वाबों में ही आओ 

पास बैठो जी भर के देख लूं 
नज़रों से अपनी थोड़ी ही माय पिलाओ 

हो जाएँ दो दिल एक हमारे 
इतना ही तुम क़रीब  आ जाओ 

नग़मे सुने हैं मैंने बहुत "अजनबी"
अब कोई मुहब्बत की ग़ज़ल सुनाओ 

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
3rd  Jan., 2000 '110'

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