बागवाँ ने हर कली के नाज़ उठाये थे
फिर भी कुछ गुल किम्वा शिगुफ्ता निकले
जुस्तुजू में निकले थे हम जिस हंसी की
सारा जहां मिला मगर एक वो ही न मिले
पुकारा था लोगों ने मुझे कहकर दीवाना
उन्हीं ने अब नाम दिया है दिलजले
मेरी मय्यत पे चढाने आये हैं फूलों की चादर
अब भी उन्हें खबर नहीं हम उनसे जुदा हो चले
सुकूँ को तलाशा तुमने बहुत "अजनबी"
मगर जहाँ गए बस जले ही जले
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
15th July, 2000, '104'
मेरी मय्यत पे चढाने आये हैं फूलों की चादर
ReplyDeleteवाह बहुत खूब!
मेरी मय्यत पे चढाने आये हैं फूलों की चादर
ReplyDeleteअब भी उन्हें खबर नहीं हम उनसे जुदा हो चले
ऊपर ये शेर अधूरा रह गया था।
वाह बहुत खूब...
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