दुःख दर्द से लबरेज वह हयात चाहिए
या रब मुझे अश्कों की कायनात चाहिए
खुशियों को देखा है मैंने बहुत क़रीब से
कुछ और नहीं अब ग़मों का साया चाहिए
आवाजों के झुरमुटों में खूब रहा हूँ मैं
तन्हाईयों का अपना इक मकाँ चाहिए
याद है अब भी वो करीना मयखाने जाने का
कि बस फिर वही तिश्नगी चाहिए
करा सके अह्सासे उल्फत जो "अजनबी"
ऐसी ही गर्दिशों की इक बरसात चाहिए
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
16th July 2000, '124'
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