Followers

Monday, August 06, 2012

आवाजों के झुरमुटों में खूब रहा हूँ मैं

दुःख दर्द से लबरेज वह हयात चाहिए
या रब मुझे अश्कों की कायनात चाहिए

खुशियों को देखा है मैंने बहुत क़रीब से
कुछ और नहीं अब ग़मों का साया चाहिए

आवाजों के झुरमुटों में खूब रहा हूँ मैं
तन्हाईयों का अपना इक मकाँ चाहिए

याद है अब भी वो करीना मयखाने जाने का
कि बस फिर वही तिश्नगी चाहिए

करा सके अह्सासे उल्फत जो "अजनबी"
ऐसी ही गर्दिशों की इक बरसात चाहिए

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
16th July 2000, '124'

No comments:

Post a Comment