हवाओं की सरसराहट नहीं ये उनका कोई पयाम है
गुजरी थी उनके संग जो शाम आज वही शाम है
था मेरे इन हाथों में उसका हसीं चेहरा
आज उन्हीं हाथों में मय का जाम है
छेड़ी है उसके शहर में किसी ने आज ग़ज़ल
शायद लवों पे उसके आया मेरा नाम है
तड़पते देखा है मैंने मौजों को कश्ती के क़रीब
महसूस होता है मुहब्बत का यही अंजाम है
मयकदे में सुकूँ न पाओगे तुम "अजनबी"
तेरी दीवानगी इस जहाँ में गुमनाम है
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी"
5th Dec. 2000'128'
No comments:
Post a Comment