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Saturday, August 18, 2012

इस सियासत में भला कौन किसका है

वो दग़ा देते रहे दोस्ती के नाम पर
हम ज़हर पीते रहे दवा के नाम पर

इस सियासत में भला कौन किसका है
वो जीते रहे दूसरों के नाम पर

इस ज़माने को मुहब्बत पे कहाँ ऐतवार है
सो दीवानों का क़त्ल करते रहे इश्क़ के नाम पर

रहनुमा बन के बैठे हैं मुल्क के जो आज
लोगों को लूटते रहे इंसानियत के नाम पर

रखनी है जिंदा मुहब्बत दुनिया में गर "अजनबी"
खुद को फ़ना कर डालो मुहब्बत के नाम पर

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
7th Feb. 2001 '136'

Friday, August 17, 2012

मुफलिस था बाप उसका इतना जहेज़ कैसे देता

फलक पे है धुंआ - धुंआ हवा है कुछ ऐसी चली
लगता है फिर कोई बेटी बहू बन के जली

खुशी- खुशी रहना, हँस के ग़म को सहना
हुआ उसका उल्टा जो दुआ थी उसको मिली

मुफलिस था बाप उसका इतना जहेज़ कैसे देता
सो आज वो बेटी दुनिया से कूच कर चली

इन जालिमों के हाथ में अब दे कोई और बेटी
वरना हासिल होगी उसे भी मौत की गली

इस बेवजह रस्म से हासिल कुछ होगा "अजनबी"
आज एक बेटी है जली कल काँटों की होगी बगिया खिली

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
5th Feb. 2001, '135'

Thursday, August 16, 2012

अभी-अभी तुम आये हो अभी जाने की कहते हो

अभी-अभी तुम आये हो अभी जाने की कहते हो
आँखों ने दिल भर के देखा नहीं और तुम जाने की कहते हो

कितने अश्क बहाए हैं मैंने इस लम्हे के इंतज़ार में
उन अश्कों को गिन पाए और तुम जाने की कहते हो

न जाने कितनी शबे फुरकत के बाद अता हुआ ये मिलन
उस मिलन से मिले नहीं और तुम जाने की कहते हो

बिखरीं हैं अभी जुल्फें माथे का पसीना सूखा नहीं
पल दो पल ठहरे नहीं और तुम जाने की कहते हो

निगाहों में मौजूद है अभी इश्क़ का सुरूर
वो सुरूर हल्का हुआ नहीं और तुम जाने की कहते हो

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
2nd Sep. 2000, '134'



Wednesday, August 15, 2012

गुजरे वक़्त को बुलाते रहे

आज रात भर वो जागते रहे
मेरा नाम लिखते और मिटाते रहे

कहते हैं नहीं है प्यार मुझसे
फिर क्यूं ख़्वाबों में आते जाते रहे

मेरा तसव्वुर भुलाने के लिए
मेरे ही नगमे गुनगुनाते रहे

सरे आईना हुए जो गेसू संवारने
तो खुद को मुझसे छिपाते रहे

मेरा छूटा संग जो उनसे
गुजरे वक़्त को बुलाते रहे

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
17th Jan. 2001, '133'

Tuesday, August 14, 2012

इक और शमा जल गयी

मैं कह सकता नहीं
आप समझ सकते नहीं

मुहब्बत के शहर में
इक और शमा जल गयी
मगर अब इसे कोई
बुझा सकता नहीं

मुहब्बत से जोड़ा है जो नाता
तो दामन चुरा सकता नहीं
जाँ लुटा सकता हूँ मगर
क़दम हटा सकता नहीं

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
19th Nov. 2000, '132'

Monday, August 13, 2012

उल्फत की राहों पे चाहा था चलना तो हमने

तेरी समझकर अपने दिल को समझा लिया मैंने
तेरे दिल को समझे बिना ही अपने दिल को समझा लिया मैंने

मेरे दिल के चमन में मुहब्बत के गुल खिले तो थे
मगर खिलने से पहले ही उनको मुरझा लिया मैंने

उल्फत की राहों पे चाहा था चलना तो हमने
मगर चलने से पहले ही क़दमों को हटा लिया मैंने

सोचा था तेरे दिल की दुनिया में इक आशियाँ बनायेंगे
अब तो तन्हाईयों में घर बसा लिया मैंने

मेरी मुहब्बत का अहसास हो या हो उनको "अजनबी"
मगर अपने दिल को अहसास करा लिया मैंने

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
17th Jan. 2001, '131'

Sunday, August 12, 2012

कभी ग़ज़ल में जा बैठे , कभी नज़्म में जा बैठे

होते हैं दीवाने उन परिंदों के माफिक
कभी इस पेड़ पे जा बैठे, कभी उस पेड़ पे जा बैठे

रस्मों के बंधन में मत बांधों इन परिंदों को
कभी इस डाल पे जा बैठे कभी उस शाख पे जा बैठे

इन परिंदों से ही आबाद है दुनिया का चमन
कभी इस बाग़ में जा बैठे कभी उस बाग़ में जा बैठे

अजब होते हैं इनके रिश्ते, अजब होते हैं इनके बंधन
कभी आसमां पे जा बैठे , कभी जमीं पे जा बैठे

इन परिंदों का मकाम क्या पूछते हो "अजनबी"
कभी ग़ज़ल में जा बैठे , कभी नज़्म में जा बैठे

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
9th Dec. 2000, '130'

Saturday, August 11, 2012

अपने पहलू में रोने की इजाज़त दे दो

अपने पहलू में रोने की इजाज़त दे दो
मेरे अश्कों को अपनी आँखों में सजाने की इजाज़त दे दो

मैं रोता हूँ और रोता ही चला जाऊंगा
बस तुम सीने से लगाने की इजाज़त दे दो

मय पी नहीं मगर पीने की तमन्ना है
इक बार जी भर के देखने की इजाज़त दे दो

हर दम रहूँगा दिल के क़रीब तेरे
अपनी साँसों में बसाने की इजाज़त दे दो

रात की तारीकी को चांदनी में बदल दूंगा मैं
"अजनबी' को ख्वाबों में आने की इजाज़त दे दो

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
15th Dec. 2000, '129'

Friday, August 10, 2012

हवाओं की सरसराहट नहीं ये उनका कोई पयाम है

हवाओं की सरसराहट नहीं ये उनका कोई पयाम है
गुजरी थी उनके संग जो शाम आज वही शाम है

था मेरे इन हाथों में उसका हसीं चेहरा
आज उन्हीं हाथों में मय का जाम है

छेड़ी है उसके शहर में किसी ने आज ग़ज़ल
शायद लवों पे उसके आया मेरा नाम है

तड़पते देखा है मैंने मौजों को कश्ती के क़रीब
महसूस होता है मुहब्बत का यही अंजाम है

मयकदे में सुकूँ पाओगे तुम "अजनबी"
तेरी दीवानगी इस जहाँ में गुमनाम है

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी"
5th Dec. 2000'128'

Thursday, August 09, 2012

चहल कदमी करते हुए

चहल कदमी करते हुए
वो पगडंडियों पर चलना
फिर वो बातों का सिलसिला
कभी हमारा कभी तुम्हारा

कभी प्यार की बातें
कभी इज़हार की बातें
कभी बचपन की यादें
कभी रब से फरियादें

इक पल में यहाँ जाना
इक पल में वहां जाना
हँसते-हँसते चले जाना
आपस में फिर वो रूठ जाना

काश आ जाएँ वापस वो दिन
उछल कूद से भर जाएँ दिन
दूर हो जाये सारी उदासी
खुशियों में डूब जाएँ अपने दिन

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
16th Aug. 2000, '127'

Wednesday, August 08, 2012

भीग गया दामन मेरा

आसमां पे छाई काली घटा बादल की
घटा लाई कुछ बूँदें सावन की बरसात की

भीग गया दामन मेरा इस बरसात में
बह गए दिल के अरमां इस बरसात में

दिल हो गया बाग़-बाग़ उन गुजरी यादों से
हो गए दूर दिल के ग़म इन प्यारी यादों से

मन भटका कुछ इधर-उधर इस बरसात से
याद आये बीते लम्हे इस बरसात से

दिल में उठी फिर से कसक आज उनसे मिलने की
पर यकीं है हमें वो न मिलेंगे इस भीगी बरसात में

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
5th Dec. 1998 '126'

Tuesday, August 07, 2012

अश्कों की महफ़िल में

अश्कों की महफ़िल में, हम खो गए थे कहीं
जब होश आया तो, हम रो रहे थे वहीँ

यक़ीं है मुझे, तुमने भी देखा होगा हमें
देख कर मुझे, खो गए होगे तुम कहीं

दिल के कहने पर आँखें हो गयीं होंगी नम
लगा कर तस्वीर को मेरी, दिल से रो रहे होगे कहीं

महका दिया होगा मेरी यादों ने तुम्हें
दिल में आया होगा, उनसे जाकर मिलूँ कहीं

हाँ -हाँ मेरे भी दिल में इक पल को आया था
इस जहां से छिपा कर तुझे, आगोश में ले लूं कहीं

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
5th July. 1999, '125'

Monday, August 06, 2012

आवाजों के झुरमुटों में खूब रहा हूँ मैं

दुःख दर्द से लबरेज वह हयात चाहिए
या रब मुझे अश्कों की कायनात चाहिए

खुशियों को देखा है मैंने बहुत क़रीब से
कुछ और नहीं अब ग़मों का साया चाहिए

आवाजों के झुरमुटों में खूब रहा हूँ मैं
तन्हाईयों का अपना इक मकाँ चाहिए

याद है अब भी वो करीना मयखाने जाने का
कि बस फिर वही तिश्नगी चाहिए

करा सके अह्सासे उल्फत जो "अजनबी"
ऐसी ही गर्दिशों की इक बरसात चाहिए

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
16th July 2000, '124'

Sunday, August 05, 2012

आफताब के माफिक

लाख कोशिश की मैंने
पयम्बर मयस्सर हुआ
भेज रहा हूँ इन हवाओं के जरिये
मुबारकबाद आपको सालगिरह की

आये और आता ही रहे ये दिन
रूठे कभी ये मुबारक दिन
छायें घटाएं हर सू खुशियों की
भीग जाएँ आप खुशियों से

आफताब के माफिक रोशन रहें आप
बहारों के दरमियाँ हर दम रहें आप
ज़िंदगी की रानाई को क़रीब से देखें
ताउम्र यूँ ही हंसती रहें आप

निकले हैं दिल से जो ये अल्फाज
छू जाएँ आपके दिल को ये अल्फाज
सालगिरह की खुशियों के साए में
नज़र है आपको मेरा ये प्यार

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
10th Aug. 2000, '123'

Saturday, August 04, 2012

आयी हूँ आपसे मिलने

थी आपको हमसे ये शिकायत
कि आती न थी आपके क़रीब

आज दुनिया का डर छोड़कर
अपनी मजबूरियों से जूझकर
सारे बंधनों को तोड़कर
आयी हूँ आपसे मिलने

चांदनी के साए में
तन्हाईयों के आसिए में
आपसे प्यार करने
आयी हूँ आपसे मिलने

अपनी साँसों में मुझे बसा लो
सारी ज़िन्दगी का प्यार दे डालो
आयी हूँ इन लम्हों को क़ैद करने
आयी हूँ आपसे मिलने

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
7th Aug. 2000, '122'

Friday, August 03, 2012

इक पल में ज़िन्दगी का प्यार कर लें

इक न इक दिन मरना पड़ेगा
इस प्यार की खातिर
चलो आज पल भर में सदियाँ जी लें
इक पल में ज़िन्दगी का प्यार कर लें

आये न आये दोबारा ये दिन
मिले न मिले ये खुशियों के पल
चलो आज जी भर के प्यार कर लें
इक पल में ज़िन्दगी का प्यार कर लें

दुनिया देखे तो देखती राहे
हालात रोकें तो रोकते रहें
चलो आज रस्मे मुहब्बत जोड़ लें
इक पल में ज़िन्दगी का प्यार कर लें

सितारे होंगे अपने प्यार के शाहिद
चाँद होगा अपने प्यार का साया
चलो आज इक दूसरे को जी भर के देख लें
इक पल में ज़िन्दगी का प्यार कर लें

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
29th Oct. 1999, '121'

Thursday, August 02, 2012

वो दीवानी और मैं दीवाना हो गया

दुनिया में ये चर्चा आम हो गया
वो दीवानी और मैं दीवाना हो गया

उसका दिल और मेरा दिल कहीं खो गया
वो दीवानी और मैं दीवाना हो गया

दोनों को अजब सा नशा छा गया
वो दीवानी और मैं दीवाना हो गया

दोनों की नींदें उड़ गयीं और चैन खो गया
वो दीवानी और मैं दीवाना हो गया

दीवानों की फेहरिस्त में इक नाम और आ गया
वो दीवानी और मैं दीवाना हो गया

-
मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
5th Aug. 2000, '120'









Wednesday, August 01, 2012

मुझे अपनी दुआओं से नवाज दो

झुक जाए सारी दुनिया कोई ऐसा ताज दो
मुझे अपनी दुआओं से नवाज दो

कहते हैं बुजुर्गों की दुआ सुनता है रब
शायद सुन ले आपकी दुआ रब
रब से ऐसी ही इक दुआ मांग दो
मुझे अपनी दुआओं से नवाज दो

चल सकूं मैं तरीक राहों में
उठा सकूं तूफाँ को बांहों में
ऐसी ही रब को इक आवाज़ दो
मुझे अपनी दुआओं से नवाज दो

चढ़ूँ और बस चढ़ता ही रहूँ
गिरने का कहीं नाम हो
सारे जहाँ को हम पर नाज़ हो
मुझे अपनी दुआओं से नवाज दो

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
7Aug. 2000, '119'