आँचल के साए में छुप- छुप के वो देखना तेरा
आँखें मिला के वो आँखें झुकाना तेरा
मुझको रुला रहा है- मुझको रुला रहा है
इशारों ही इशारों में वो बातें करना तेरा
पाकर आहट मेरी यहाँ वहां वो छिपना तेरा
मुझको रुला रहा है- मुझको रुला रहा है
बांतों ही बांतों में वो होठों में उंगली दबाना तेरा
इक तबस्सुम के संग वो मुझसे दूर जाना तेरा
मुझको रुला रहा है- मुझको रुला रहा है
मेरे इंतज़ार में शब-शब भर वो जागना तेरा
तन्हाईयों में मुझसे मिलने वो आना तेरा
मुझको रुला रहा है - मुझको रुला रहा है
चांदनी में मेरे संग वो वक़्त गुजारना तेरा
हाँ-हाँ और न- न में मेरे लवों को वो चूमना तेरा
मुझको रुला रहा है- मुझको रुला रहा है
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
1st Aug. 2000, '115'
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति........
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