वो रोते हैं मेरे लिए
मैं रोता हूँ उनके लिए
वो जीते हैं मेरे लिए
मैं मरता हूँ उनके लिए
दोनों बने हैं बस प्यार के लिए
खाईं हैं उसने कसमें
किये हैं हमने वादे
साथ निभाने के लिए
आँखों ही आँखों में मुझे बुला के
फिर खुद दूर चले जाते हैं
मेरी बेक़रारी बढाने के लिए
छत पर तन्हा बैठ कर
चाँद को निहारते हैं
हवाओं से मेरा पता पूछते हैं
मुझे देखने के लिए
दुनिया से दूर होकर
तन्हाईयों में बैठते हैं और
सन्नाटों से प्यार करते हैं
मुझे सोचने के लिए
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'74' 18th Apr. 2000
आँखों ही आँखों में मुझे बुला के
ReplyDeleteफिर खुद दूर चले जाते हैं
मेरी बेक़रारी बढाने के लिए
छत पर तन्हा बैठ कर
चाँद को निहारते हैं
हवाओं से मेरा पता पूछते हैं
मुझे देखने के लिए ।
बहुत अच्छी भावपूर्ण कविता कभी समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/