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Saturday, November 19, 2011

क्या सुनाऊं यारो तुम्हें ग़ज़ल

क्या सुनाऊं यारो तुम्हें ग़ज़ल
जब मेरी ग़ज़ल ही मेरे पास नहीं

है किसी का ये शायर
है उसी की ये शायरी
क्या सुनाऊं तुम्हें शायरी
जब मेरे पास नहीं मेरी शायरी

ग़ज़ल का हर मिसरा है उसके नाम
मिसरे का हर लफ्ज़ है उसके नाम
मगर अब उसका नाम है किसी और के नाम

अब क्या दिल बहलाऊं यारो तुम्हारा
जब मेरा दिल ही मेरे पास नहीं

क्या सुनाऊं यारो तुम्हें ग़ज़ल
जब मेरी ग़ज़ल ही मेरे पास नहीं

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
23rd June 2000, '93'

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