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Sunday, November 06, 2011

जिसे अपनी ज़िन्दगी बनाने चले थे

जिसे अपनी ज़िन्दगी बनाने चले थे
उसी से जुदा हो के चले हैं

खुशियों को दामन में समेट कर लाये थे
अश्कों की बरसात में भीग कर चले हैं

मुहब्बत की तिश्नगी में तबाह हुए
फिर भी यादों को छिपाकर चले हैं

आज उनका सेहरा फूलों से महका है
मेरी ज़िन्दगी में कांटे बो कर चले हैं

क्यों नाराज़ होता है उससे "अजनबी"
कुछ तो सोचकर बेवफाई करने चले हैं

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
30th May, 2000

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