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Tuesday, August 09, 2011

सारी दुनिया से अन्जान

क्यों आती है जुदाई
क्यों मिलती है तन्हाई
किससे पूछूं किससे कहूँ
सारी दुनिया से अन्जान
अपने से अजनबी
फिर भी
मन में है इक लगन
कि वही है मेरा सजन
जो आँखों को रुलाये
दिल में दर्द जगाये

हो दूर अब ये दूरी
रहे कोई मजबूरी
मिले वो मुझसे आके
इन भीगी- भीगी रातों में
जिससे भीग जाये मेरा मन
और मेरा प्यारा सजन
पर किससे कहूँ कैसे कहूँ
जो बता दे जाकर उसे
कि
याद करता है तुझे इक "अजनबी"

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
31st Aug. , 1999, '50'


3 comments:

  1. बहुत बहुत शुक्रिया संगीता जी..

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  2. बेहतरीन रचना। आभार।

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