वो मेरे क़रीब थे
मैं उनके क़रीब था
ये तो मेरा नसीब था
कि
मैं इन हसीं लम्हों को
उसके साथ गुजार रहा था
धुली हुई चांदनी थी
रत अपने शवाब पर थी
तारे भी गवाही दे रहे थे
इन सब हालातों के मद्देनज़र
हम दोनों मुजरिम से बैठे हुए थे
चाँद अपनी चांदनी से पूछ रहा था
कि
ये कौन हैं?
सुबह शबनम भी निशा से कहती थी
कि
रात में कैसी थी ये हलचल ?
तारे नज़ारे
डालियों का हिलना, पत्तों की सरसराहट
चाँद चांदनी, सरे जग की रौशनी
कहते हैं हो के इक साथ
कल दो नयन थे इक साथ
जैसे ही आगे कुछ होने वाला था
कोई कुछ कहने वाला था
कि
न जाने कैसे ये सुबह हो गयी
और मैं यूँ ही...............................
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'9' 24th Jan. 1999
सुंदर रचना , बधाई ।
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