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Saturday, December 10, 2011

नात

अरमाँ है इक दिल में कि
कभी उनका रोज़ा देखने जायेंगे

आएगा कभी वो दिन जब कि
खुद को रोज़ा के रूबरू पाएंगे

या रब इक बार चौखट पर सर रखने का अरमाँ हो पूरा
हम तो बस रोते और रोते ही जायेंगे

रखता हूँ दिल में आशिक़े मुहम्मद कहलाने कि तमन्ना
दुनिया वाले दें चाहे जितने ग़म हँस के सह जायेंगे

कब्र को चीर कर आयेंगे जब मुनकरनकीर
हम तो बस बारहा दरुदे पाक गुनगुनायेंगे

हश्र में होगा गुनाहों से लदा जब ये "अजनबी"
मेरे आका ज़रूर मेरी शफा-अत फरमाएंगे

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
25th June 2000, '97'

1 comment:

  1. वाह, बेहतरीन.... बहुत खूब!

    आमीन!

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