देखते हैं किताबों में तुम्हें
पाते हैं बातों में तुम्हें
लाना चाहता हूँ मैं
हर रोज़ ख्वाबों में तुम्हें
सजाना चाहता हूँ मैं
अपनी पलकों पे तुम्हें
हर घड़ी आँखों से अपनी
प्यार करना चाहता हूँ तुम्हें
मेरी ज़िन्दगी में छ जाओ हर सू
छिप-छिप के देखना चाहता हूँ तुम्हें
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
1st July, 2000, '96'
No comments:
Post a Comment