जिस दिल में इश्क़े मुस्तफा नहीं
अल्लाह की नज़र में वो दिल नहीं
लाख करे वो सजदे मगर
कोई सजदा इबादत में शामिल नहीं
हर लम्हा हाथ में तस्वीह हो, जुबां पे कलमा
बेमुहम्मद के ज़र्रा भर नेकी हासिल नहीं
शबो रोज लगाए डुबकियां वो सागरे नमाज़ में
मगर ऐसे सागर का कोई साहिल नहीं
सुन्नियत ज़िंदा है और ताकयामत ज़िंदा रहेगी
मार सके इसे जो ऐसा कोई कातिल नहीं
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
2nd Apr. 2001, '137'
कोई सजदा इबादत में शामिल नहीं
हर लम्हा हाथ में तस्वीह हो, जुबां पे कलमा
बेमुहम्मद के ज़र्रा भर नेकी हासिल नहीं
शबो रोज लगाए डुबकियां वो सागरे नमाज़ में
मगर ऐसे सागर का कोई साहिल नहीं
सुन्नियत ज़िंदा है और ताकयामत ज़िंदा रहेगी
मार सके इसे जो ऐसा कोई कातिल नहीं
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
2nd Apr. 2001, '137'
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